परिवार नियोजन: महिलाओं का हक, पूरे समाज की जिम्मेदारी

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पटना: बिहार के ग्रामीण इलाकों में परिवार नियोजन को लेकर कई मिथक और भ्रांतियाँ बनी हुई हैं। पारिवारिक और सामाजिक दबाव के कारण महिलाएँ अब भी अपने स्वास्थ्य और भविष्य से जुड़े निर्णय स्वतंत्र रूप से नहीं ले पाती हैं। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, बिहार में परिवार नियोजन के प्रति महिलाओं की जागरूकता और भागीदारी में सकारात्मक बदलाव आया है।
एक बदली हुई तस्वीर:
एनएफएचएस -5 के अनुसार, बिहार में परिवार नियोजन के किसी भी साधन का उपयोग करने वाली विवाहित महिलाओं का प्रतिशत 24.1% से बढ़कर 55.8% हो गया है।
महिलाओं के अपने स्वास्थ्य निर्णय लेने की स्वतंत्रता भी बढ़ी है, जिसमें परिवार नियोजन से जुड़े फैसले शामिल हैं। 37% महिलाएँ अब अपने पति या परिवार के हस्तक्षेप के बिना खुद स्वास्थ्य से जुड़े निर्णय लेने में सक्षम हैं, जो पिछले सर्वेक्षण की तुलना में वृद्धि दर्शाता है।
नालंदा निवासी रेनू कुमारी जो माँ बनने के बाद भी परिवार नियोजन से अनजान थीं, अब अन्य महिलाओं को बताती हैं, “पहले तो हमें लगता था कि यह सब औरतों का मामला नहीं, बल्कि घर के बड़े बुज़ुर्ग तय करते हैं। लेकिन जब जीविका दीदी ने समझाया कि यह मेरा हक़ है, तब जाकर मैंने फैसला लिया।”
आशा और स्वास्थ्य प्रणाली की भूमिका: 
पटना की आशा कार्यकर्ता सुनीता देवी का कहना है, “जब हम गाँव में परिवार नियोजन की बात करते हैं, तो कई बार परिवार के बड़े बुज़ुर्ग नाराज़ होते हैं। लेकिन धीरे-धीरे जागरूकता आ रही है। महिलाएँ खुलकर बात कर रही हैं, पुरुष भी अब समझने लगे हैं कि यह महिलाओं के स्वास्थ्य और परिवार की आर्थिक स्थिति के लिए जरूरी है।” जीविका समूह की अनीता देवी मानती हैं कि महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण सीधे उनके स्वास्थ्य निर्णयों से जुड़ा हुआ है। “जब महिलाएँ खुद पैसा कमाने लगती हैं, तब वे अपने स्वास्थ्य और परिवार के फैसलों में अपनी आवाज़ बुलंद कर पाती हैं।
एनएफएचसी-5 के अनुसार, बिहार में संस्थागत प्रसव का प्रतिशत 63.8% से बढ़कर 76.2% हो गया है, जिससे यह साफ़ होता है कि महिलाएँ अब अधिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बना रही हैं। इसके अलावा, 21% से अधिक महिलाओं ने गर्भनिरोधक इंजेक्शन, कॉपर टी और अन्य आधुनिक साधनों को अपनाया है, जिससे उनकी सेहत और जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ है।
परिवार नियोजन के राज्य कार्यक्रम पदाधिकारी डॉ. एके शाही ने कहा कि बिहार में परिवार नियोजन सेवाओं को मजबूत करने के लिए निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं। “हमने अब ग्रामीण इलाकों में भी सबडर्मल इम्प्लांट और इंजेक्टेबल गर्भनिरोधक जैसी नई विधियाँ उपलब्ध कराई हैं। लेकिन असली चुनौती इसे सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाना है,” वे कहते हैं। यह सच है कि सिर्फ सुविधाएँ बढ़ाने से बदलाव नहीं आता, जब तक कि समुदाय इसे सहज रूप से न अपनाए।
पुरुषों की भूमिका और सामाजिक स्वीकृति: 
समाज में बदलाव की बयार तब और तेज़ होती है जब पुरुष भी इसमें भागीदारी निभाते हैं। एनएफएचएस -5 के अनुसार, पुरुषों में भी परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता बढ़ी है, और अब अधिक पुरुष इस जिम्मेदारी को साझा करने के लिए आगे आ रहे हैं।
पंकज कुमार, जो दो बच्चों के पिता हैं, बताते हैं, “पहले मुझे भी लगता था कि परिवार नियोजन सिर्फ औरतों के लिए है, लेकिन जब डॉक्टर ने समझाया कि पुरुष भी इसमें भाग ले सकते हैं, तब मैंने नसबंदी करवाई। अब मैं अपने गाँव के लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करता हूँ।”
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