भारतीय राष्ट्र के नवनिर्माण के सभी पक्षों पर गांधीजी के विचार काफी विचारणीय और समीचीन हैं : प्रो० आनन्द

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दरभंगा : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर आनन्द कुमार ने गांधीजी के राष्ट्रनिर्माण की अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में जाति, भाषा और धर्म की विविधता के बावजूद भारत का नवनिर्माण बखूबी होता गया।
 महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन के तत्वावधान में महाराजा कामेश्वर सिंह जी के जन्मदिवस के अवसर पर आयोजित कामेश्वर सिंह स्मृति व्याख्यान माला को संबोधित करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर आनन्द कुमार ने “स्वराज-रचना और राष्ट्रनिर्माण का गांधी मार्ग” विषय पर व्याख्यान दिया।
कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति पं० डा. शशि नाथ झा की अध्यक्षता में आयोजित व्याख्यान को संबोधित करते हुए प्रोफेसर आनन्द कुमार ने कहा कि गांधीजी के लिए सिद्धांत हीन राजनीति सबसे बड़ा पाप है। भारतीय राष्ट्र के नवनिर्माण के सभी पक्षों पर गांधीजी के विचार काफी विचारणीय और समीचीन हैं। उन्होंने कहा कि गांधी जी ने स्वतंत्रता प्राप्ति को एक सीमित राजनीतिक सफलता बताया और सचेत किया कि स्वराज के आर्थिक, सामाजिक और नैतिक पक्ष को पूरा करने का कठिन काम बाकी है। इसके बिना ‘पूर्ण स्वराज’ का संकल्प साकार नहीं होगा। भारत के नवनिर्माण के लिए आर्थिक समानता, साम्प्रदायिक एकता, ग्राम – स्वराज, दरिद्रता और बेरोजगारी निर्मूलन, स्त्री पुनरुत्थान, स्वच्छता – स्वास्थ्य – शिक्षा सुधार, भाषा स्वराज, विकेन्द्रीकरण एवं देश – दुनिया में शांति के लिए प्रभावशाली कदम उठाना भारत की नयी जिम्मेदारी है। इसलिए स्वतंत्रता के इस अमृत वर्ष के अवसर पर इन नौ सूत्रीय जिम्मेदारी के बारे में आत्म मूल्यांकन आवश्यक है।
प्रोफेसर कुमार ने कहा कि भारत के नवनिर्माण में भारतीय संविधान ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया। किन्तु लोकतंत्र का विकास संविधान से सुरक्षित और सम्पोषित होता रहा। वहीं भारतीय लोकतंत्र को चुनाव और उसका धनतंत्र सर्वाधिक प्रभावित करने लगा। समाजवादी ने जाति तोड़ो अभियान शुरू किया और आज जाति जोड़ो का राग आलाप रहे हैं। आज राष्ट्रवाद से उपजा लोकतंत्र परिवारवाद में बदलकर रह गया।
प्रोफेसर कुमार ने कहा कि भारतीय समाज आज भी लिंग भेद और जाति भेद से ग्रस्त है। आज भी स्त्रियों को न तो सुरक्षा प्राप्त है और न स्वतंत्रता, परिवार और परिवार के बाहर भी वो सबसे असुरक्षित है। आज भी भारत में सामाजिक और आर्थिक असमानता जारी है। भारत के समक्ष धर्म और राजनीति का सम्बन्ध सबसे उलझा प्रश्न है। राष्ट्र निर्माण का आर्थिक पक्ष भी काफी महत्वपूर्ण है। ठोस आर्थिक नीति के अभाव में कोरोना काल में भारत की राष्ट्रीयता खंडित हुई।
उन्होंने कहा कि गांधीजी की हत्या के ठीक तीसरे दिन प्रकाशित उनकी ‘वसीयतनामा’ के बारे में राष्ट्रपति डाॅ० राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा कि हमने जो स्वतंत्रता प्राप्त की है उसके फलस्वरूप हमारे ऊपर गंभीर जिम्मेदारियां आ गयी हैं, हम चाहें तो भारत का भविष्य बना सकते हैं और चाहें तो बिगाड़ सकते हैं। गांधीजी ने स्वराज को एक निर्गुण आदर्श से सगुण सच बनाने में छः दशकों के दौरान विचार और कर्म के स्तर पर असाधारण योगदान दिया। उनके सपनों, प्रयासों और शिक्षा ने न केवल स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया अपितु राष्ट्र निर्माण की एक रुपरेखा भी प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यहाँ उल्लेखनीय है कि उनके व्यक्तित्व और चिंतन के निर्माण में हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्मों का समभाव प्रभाव रहा है। उनके विचार एशिया, अफ्रीका और यूरोप के समकालीन इतिहास का संगम है। गांधी विचार के विशेषज्ञ “हिन्द – स्वराज” और उनकी आत्मकथा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति मानते हैं, जबकि गांधीजी स्वयं गीता आधारित “अनासक्ति योग” को महत्वपूर्ण मानते थे। गांधीजी मूलतः आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे और राजनीति के आध्यात्मिकरण उनका विश्व समाज को सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। सत्य और अहिंसा उनके जीवन दर्शन का मूल आधार रहा और ईश्वर में उनकी असीम आस्था थी, यही कारण है कि “आत्मसाक्षात्कार” को अपना अभिष्ट मानते थे।
 प्रोफेसर कुमार ने कहा कि गांधीजी बाजार शक्ति और राज्यसत्ता की तुलना में समुदाय शक्ति को श्रेष्ठ मानते थे और यही कारण है कि राष्ट्रनिर्माण के लिए लोकशक्ति के आधार पर रचनात्मक कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। स्वावलम्बी समुदाय निर्माण को स्वराज का पर्यायवाची बनाया। तमाम आशंकाओं और आलोचनाओं के बावजूद गांधीजी की मृत्यु के बाद सत्य, अहिंसा, स्वराज, स्वदेशी, सर्वोदय, सत्याग्रह आधारित विमर्श विकास की निरंतरता दुनिया में विस्मयकारी रुप से सच साबित हुई। कितने ही परवर्ती नेता वो मार्टिन लूथर किंग हों या नेल्सन मंडेला, दलाई लामा हों या बिनोवा भावे या फिर जयप्रकाश जैसे मार्क्सवादी समाजवादी हों, गांधी दर्शन से अभिभूत दिखते हैं। बिनोवा भावे का भूदान आन्दोलन और जयप्रकाश का “सहभागी लोकतंत्र” और “सम्पूर्ण क्रांति” तो गांधीजी के दर्शन और विचारों का मूर्तरूप हैं।
उन्होंने कहा कि गांधीजी का मानना था कि परस्पर सहयोग के जरिये जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकेन्द्रित उत्पादन प्रक्रिया के अन्तर्गत शरीर-श्रम जीवन का प्रथम नैतिक नियम है। इससे धरती पर मानव अस्तित्व का निर्वाह होगा और राष्ट्र – राज्यों द्वारा निर्मित आधुनिक बाधाओं के बावजूद स्वराज और समता आधारित मानव सभ्यता संभव हो सकेगी। हिंसा आत्मरक्षा का सही उपाय नहीं है, इससे हथियारों की होड़ को बढ़ावा मिलता है। इसके विपरीत अहिंसक तरीके को अपनाने से समुदायों में आत्मसुरक्षा की क्षमताओं में वृद्धि हो सकेगी और अल्पसंख्यक भी अपने को सुरक्षित महसूस करेंगे। इस प्रकार स्वतंत्रता हर समुदाय को दूसरे समुदाय के समक्ष सुरक्षित करेगी।
प्रोफेसर कुमार ने बताया कि गांधीजी के दर्शन के दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं, एक आत्मसमीक्षा और इससे जुड़े आंतरिक सुधार और व्यवस्था गत परिवर्तन और दूसरा समस्या की तात्कालिक तस्वीर और सत्य आधारित इसका समाधान। गांधीजी की कार्यपद्धति की विशेषता थी कि अपने किसी विचार और सुझाव को व्यवहार में लाने के लिए नयी संस्था बनाने के बजाय उपलब्ध संगठनों को ही असरदार माध्यम बनाते थे। अगर नयी संस्था आवश्यक भी हुआ तो उसे किसी पूर्व संगठन के अन्तर्गत निर्मित करते थे, जिससे अनुकूल परिवेश निर्मित हो सके। किसी प्रसंग पर अपना विचार बहुत सोच समझकर व्यक्त करते थे और अपने वक्तव्य और विचार पर अडिग रहते थे। लेकिन असहमत व्यक्ति से बहुत दूर नहीं होते थे। ‘मतभेद’ को ‘मनभेद’ और ‘सम्बन्ध विच्छेद’ नहीं बनने देते थे। आलोचनाओं और भ्रांतियों के बावजूद विरोधियों से संवाद करना उनकी खासियत थी। यही कारण था कि मोतीलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस सरीखे नेता उनके विरोध के बावजूद उनके विचारों के कायल थे।
स्वतंत्रता संग्राम में सविनय अवज्ञा, अहिंसा, सत्याग्रह, खादी, स्वच्छता, नशा विरोध, स्त्री शिक्षा, रचनात्मक कार्यों को जोड़कर समाज के हर वर्ग और समुदाय को इसके लिए प्रेरित किया।
वस्तुतः भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1920 के बाद गांधीजी के आन्दोलनों की सफलता – असफलता से प्रभावित होता रहा। गांधीजी के लिए स्वराज के विमर्श को निरंतर विस्तार देना सत्य साधना का अनिवार्य अंग था। उनकी पुस्तक ‘हिन्द – स्वराज’ उनकी अद्भुत रचना है। भारत की हर समस्याओं का हल यहाँ उपलब्ध है।
गांधीजी को अपनी संस्कृति, धर्म, देश और इतिहास पर अपार गर्व था। किन्तु इस संस्कृति में उभरे ऊंच नीच, छुआछूत, गुलामी, गरीबी, साम्प्रदायिक मतभेद, स्त्रियों की दुर्दशा, नशा खोरी आदि महादोषों से ग्लानि का अनुभव करते थे और इन दोषों से मुक्ति को अनिवार्य मानते थे। समाज सुधार उनके लिए सबसे अनिवार्य कार्य था, बिना स्वस्थ और समृद्ध समाज के सशक्त भारत की कल्पना वो नहीं करते थे। उनके विचार में आदर्श गांव ही सशक्त भारत का निर्माण कर सकता था।
गांधीजी के लिए गांवों की आत्मनिर्भरता आवश्यक थी, समुदायों की आत्मनिर्भरता आवश्यक थी, हर गांव में स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार आदि की व्यवस्था आवश्यक थी। वे विकेंद्रित आर्थिक व्यवस्था के सम्पोषक थे। उन्नत गाँव ही उन्नत भारत का निर्माण करेगा यह उनकी मूल संकल्पना थी।
अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रोफेसर शशि नाथ झा ने प्रोफेसर आनन्द कुमार के भाषण को विलक्षण बताया और फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक की महत्ता पर प्रकाश डाला। प्रोफेसर झा ने अपना अध्यक्षीय भाषण मैथिली भाषा में दिया। 1956 के अकाल के समय में महाराज कामेश्वर सिंह के लोकोपकार की विस्तृत जानकारी दी।
स्वागत भाषण फाउंडेशन के मानद सदस्य प्रोफेसर रामचंद्र झा जी ने दिया। अपने स्वागत भाषण में प्रोफेसर रामचंद्र झा जी ने प्रोफेसर आनन्द कुमार का विस्तृत परिचय दिया और मिथिला के वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य में फाउंडेशन के कार्यों पर प्रकाश डाला।
कार्यक्रम की शुरुआत भगवती वंदना और महाराज के चित्र पर माल्यार्पण से  हुई। धन्यवाद ज्ञापन फाउंडेशन के मानद सदस्य पद्मश्री डाॅ० जे० ल० के० सिंह ने किया। मंच संचालन फाउंडेशन के कार्यपालक पदाधिकारी श्री श्रुतिकर झा ने किया।
“मिथिला दर्शन” नामक मैथिली पुस्तक का लोकार्पण हुआ।
पिछले वर्षों की भांति इस वर्ष कामेश्वर सिंह बिहार हेरिटेज सिरीज़ के तहत चौविसवीं पुस्तक के रूप में स्वर्गीय शशिनाथ चौधरी कृत “मिथिला दर्शन” नामक मैथिली पुस्तक का लोकार्पण हुआ। मूल मैथिली भाषा की इस पुस्तक का संपादन और हिन्दी अनुवाद मिथिला के प्रतिष्ठित इतिहासकार और मैथिली के समालोचक – साहित्यकार डाॅ० शंकरदेव झा ने किया। यह मैथिली भाषा में मिथिला का प्रथम समग्र इतिहास है, जो प्रथमतः 1931ई० में छपी थी और विगत चार दशकों से अनुपलब्ध थी। यह पुस्तक मिथिला में उभरे पुनर्जागरण के काल में लिखी गई थी, इसलिए भी इस पुस्तक का काफी महत्व है। मैथिल समाज में उभरे सामाजिक दोषों को रेखांकित करने एवं इन्हें दूर करने के उपायों पर अपने विचार रखे। इस लिहाज से भी यह पुस्तक पठनीय और संग्रहनीय है।
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