मोतिहारी।कला के मामले में चम्पारण की भूमि काफी उर्वरा रही है। एक दौर था जब चम्पारण को बिहार की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता था। कई दिग्गजों की वजह से यहाँ के कलाकारों की चर्चा के बगैर फ़िल्मी दुनिया की चर्चा अधूरी सी लगती है। इन चर्चित नामों में फ़िल्म निर्माता निर्देशक और अब अभिनेता प्रकाश झा, अभिनेता मनोज बाजपेयी के बाद सिनेमा के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से पुरस्कृत एवं दर्जनों अवार्ड से सम्मानित फ़िल्म लेखक, अभिनेता व निर्देशक डा. राजेश अस्थाना मुद्दों पर आधारित सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्में बनाने की वजह से अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं। चम्पारण में फिल्मों के प्रचार प्रसार का श्रेय डा. राजेश अस्थाना को ही जाता है। वर्ष 1980 में प्रकाश झा द्वारा चम्पारण में पहली बार ‘दामुल’ फ़िल्म की शूटिंग के पश्चात वर्ष 1985 में पहलीबार फ़िल्म “गोरखनाथ बाबा तोहे खिचड़ी चढ़इबो” से पहलीबार कैमरा फेश करनेवाले डा. अस्थाना सुपर स्टार गोविंदा एवं मंदाकिनी के साथ नया खून समेत दो दर्ज़न से अधिक फिल्मों में अभिनय किया है। डा. अस्थाना ने ‘थोड़ा सा सच’ से शुरू करके अछूत, आत्मघात, संदेश, रामकली, अभिशप्त, मैं चम्पारण हूँ मेरा बयान सुनो, चम्पारण में बापू, कर्मयोगी, द ट्रेनिंग ऑन ईवीएम, रूटीन इम्यूनाइजेशन, जिला ग्रामीण विकास अभिकरण के बढ़ते कदम, कल के भविष्य, गंगा माई जईसन भऊजी हमार, राऊर नेहिया बा अनमोल, जियरा ले गईल चोर जैसी टेलीफिल्म और फीचर फ़िल्मों का निर्माण कर गति को आयाम दिया। 23 टेलीफ़िल्में, 2 सीरियल, 8 डाक्यूमेंट्री एवं 6 फीचर फिल्म के साथ एक वेब सीरीज बनानेवाले डा. अस्थाना ने 150 नाटकों के मंचन के साथ साथ काफ़ी उत्पादों का मॉडलिंग भी किया है। नई फिल्म ‘चम्पारण सत्याग्रह’ के पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान रंगकर्म से फिल्मों में प्रसिद्धि पाए डा अस्थाना से बातचीत के अंश:-
आप रंगकर्म से आए हैं, रंगकर्मियों का पलायन फिल्मों की तरफ़ क्यों हो रहा है?
रंगकर्मियों का फिल्मों की ओर आना पलायन नही है बल्कि आर्थिक मजबूरी और समय की दौड़ में खुद को गतिमान रखना है, कारण व्यावसायिक रंगमंच का घोर अभाव। मैं खुद भुक्तभोगी हूँ। इस मामले में सिनेमा खुद को व्यस्त रखने का सशक्त माध्यम है।
रंगकर्म छोड़कर फिल्मों में आए अधिकांश रंगकर्मियों को सफलता नही मिलती?
विज़न और फ़िल्म विधा का ज्ञान का नही होना। हमारे यहाँ कलाकार सिद्ध होने से पहले प्रसिद्ध होने की बीमारी से ग्रसित हैं। दो एक नाटक या एलबम में काम करके या सोशल मीडिया पर मिम्स रील बनाकर अधकचरी जानकारी लेकर फ़िल्म के क्षेत्र में उतरने का हश्र तो बुरा होना ही है।
एक ओर जहाँ फूहड़ और दिशाविहीन फिल्मों का निर्माण हो रहा है वहीं आप कुष्ठ रोग, एड्स, दहेज़, बालश्रम जैसी समस्यामूलक फ़िल्मों के निर्माण में क्यों व्यस्त रहते हैं?
अगर आप खुद को संस्कृतिकर्मी मानते हैं तो समाज के लिए काफी बड़ा दायित्व आपके कन्धों पर है। मैं समाज को नई दिशा और दृष्टि देने के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता हूँ। समाज में उत्पन्न समस्याओं से आमजनों को रूबरू करना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है।
भोजपुरी फिल्मों में आई अश्लीलता पर आपका नज़रिया क्या है?
बेशक भोजपुरी फिल्मों में अश्लीलता आई है। इसके लिए 90 प्रतिशत कुकुरमुत्ते की तरह उग आए रिकार्डिंग स्टुडियो जिम्मेवार हैं। नेट से ट्रैक चुराकर उसपर अश्लील या द्विअर्थी गाने के बोल भरकर यूट्यूब पर लोड कर देते हैं। यूट्यूब चैनल पर सरकार का नियंत्रण नही रहने से बिना सुर ताल के गा- गा कर यूट्यूबर स्टार बनकर कॉलर टाइट किए रहते हैं सब। बाकी बचे 10 प्रतिशत स्थापित निर्माता- निर्देशक और स्टार कलाकार लोग हैं, जिन्हें अपनी झोली भरने के अलावा दूसरा कोई काम नही है। भले ही भोजपुरिया समाज गर्त में ही क्यों न चली जाए। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि मेरी फिल्मों में कहीं से भी अश्लीलता नही होती है।
आपकी आनेवाली फिल्में?
मेरे सपनों की फ़िल्म “चम्पारण सत्याग्रह” में पंडित राजकुमार शुक्ल एवं फ़िल्म बियाह होखे त अईसन में पिता मास्टर दीनानाथ का किरदार मुझे अमर बना देगा। मैं अपनी फिल्मों के अलावा बाहर की फिल्में भी करना शुरू कर दिया है जिनमें मास्टर जी, देवता, दहेज के आग, केहू से प्यार हो जाला, ई हमार प्यार मोहब्बत जिंदाबाद, हमार बियाह कब होई आदि प्रमुख है।
