बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की 133वीं जयंती मनी, भाकपा माले  ने लिया संविधान व लोकतंत्र बचाने का संकल्प

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  • जिला कार्यालय सहित विभिन्न गांवों में बाबा साहब की तस्वीर पर माल्यार्पण कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया गया।
  • आज फुले और अंबेडकर को उनकी जयंती पर याद करना उनकी   क्रांतिकारी विरासत को फिर से जिंदा करना है
अशोक वर्मा 
मोतिहारी : बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के 133 वीं जयंती के अवसर पर आज मोतिहारी स्थित भाकपा माले कार्यालय में उनकी तस्वीर पर फूल माला  चढ़ाकर कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया गया और उनके द्वारा रचित संविधान की रक्षा का संकल्प लिया गया।इस मौके पर उपस्थित पार्टी कार्यकताओं को संबोधित करते हुए नेताओ ने कहा किभारत में सामाजिक समानता की लड़ाई में दो सबसे बड़े नाम ज्योतिराव फुले और बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती क्रमशः 11 अप्रैल और 14 अप्रैल को है. इस साल हम फुले की 197वीं जयंती और डॉ. अंबेडकर की 133वीं जयंती मना रहे हैं. ऐसे दौर में जब भारतीय गणराज्य की संवैधानिक बुनियाद पर गंभीर हमले हो रहे हैं और दमनकारी सामंती और पितृसत्तात्मक मूल्यों के पुनरुत्थान का माहौल बनाया जा रहा है , फुले और अंबेडकर के संदेश और भी ज्यादा प्रासंगिक और हौसला बढ़ाने वाला है.
दुनियाभर के तरक्कीपसंद लोगों द्वारा 1848 को कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन के साल के बतौर याद किया जाता है. ठीक उसी साल  युवा ज्योतिराव, जिन्हें ज्योतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है, ने 21 साल की उम्र में अपनी 17 साल की पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर पुणे के भिड़ेवाड़ा में लड़कियों के लिए भारत के पहले स्कूल की शुरआत की थी. यह वही साल था जब फुले ने अमरीकी दार्शनिक थॉमस पेन की “राइट्स ऑफ मैन” नामक किताब पढ़ी, जो फ्रांसीसी क्रांति की हिमायत करती थी. महिलाओं और उत्पीड़ित जातियों को शिक्षा देने की पहलकदमी  की वजह से फुले दंपत्ति को मनुस्मृति का पालन करने वाले रूढ़िवादी उच्च जाति के अभिजात तबके से क्रोध और निंदा का सामना करना पड़ा. यहां तक कि उन्हें अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से भी बहिष्कार का सामना करना पड़ा.  हालांकि, वे अपने मुस्लिम मित्रों, फातिमा और उस्मान शेख के अनुकरणीय समर्थन से  महिला शिक्षा के लिए अपना अभियान को आगे बढ़ा सके.
इसने एक बेहतरीन कॉमरेडशिप की शुरुआत की और आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय और महिला शिक्षा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा गया. महिला शिक्षा महिलाओं के सशक्तिकरण का एक जरिया हो गई, जिसने शिशुहत्या के खिलाफ़ अभियान चलाया और विधवा पुनर्विवाह की वकालत की. यह आज के खोखले और घोर स्त्री -द्वेषी ताकतों द्वारा उछाले गए “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे जुमले के उल्टे महिला शिक्षा और समानता के लिए एक मौलिक और वास्तविक अभियान था, जिसने सामंती समाज को हिलाकर रख दिया.  फुले ने 1873 में अपनी प्रभावशाली रचना ‘गुलामगिरी’ लिखी, जिसमें भारत की जाति व्यवस्था की आलोचना की और इस किताब को अमेरिका में नस्लीय गुलामी से लड़ने वालों को समर्पित किया.
फुले का निधन 1890 में हुआ, ठीक उसी समय जब अंबेडकर का जन्म हुआ था.  1920 के दशक तक इंग्लैंड और अमरीका में अपनी शिक्षा पूरी कर अंबेडकर सामाजिक न्याय आंदोलन में एक अहम शख्सियत  के बतौर  उभरे. अंबेडकर ने बुद्ध और कबीर के बाद फुले को अपना महान शिक्षक और प्रेरणा का स्रोत माना. 1927 वह निर्णायक साल था जब अंबेडकर ने दो ऐतिहासिक कदम उठाए – मार्च में महाड़ सत्याग्रह, जिसमें बिना भेदभाव के सार्वजनिक वस्तु के बतौर पानी के अधिकार का दावा किया, और दिसंबर में मनुस्मृति को गुलामी की संहिता बताते हुए सार्वजनिक रूप से जलाया. 1936 में उन्होंने खुलकर ‘जाति के विनाश’ का आह्वान किया और स्वतंत्र लेबर पार्टी का गठन किया, जिसका उद्देश्य जाति और पूंजीवाद दोनों को खत्म करना था.अगले दो दशकों में अंबेडकर ने  महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ऑपिनिवेशिक भारत को आज़ादी मिलने के बाद अंबेडकर की अध्यक्षता वाली संविधान सभा द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान को अपनाने के दौरान अनेक क्रांतिकारी विचारों और पहलों पर अमल किया जिसका मसौदा उन्होंने खुद लिखा था.  हालाँकि, संविधान को अपनाने से अंबेडकर की यात्रा समाप्त नहीं हुई. उन्होंने नए अपनाए गए संविधान के आधार पर न्याय और सामाजिक समानता के लिए लड़ाई जारी रखी. उनकी आखिरी बड़ी लड़ाई हिंदू कोड बिल थी, जिसमें महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिए हिंदू पर्सनल लॉ को आधुनिक बनाने का प्रयास किया गया था. संविधान में गारंटीकृत धार्मिक स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपनाने का आखिरी कदम उठाया.
आज जब भारत के सबसे निर्णायक चुनावी जंग में संवैधानिक लोकतंत्र का भविष्य दांव पर लगा हुआ है, हमे फुले और अंबेडकर की क्रांतिकारी विरासत से  ताकत और प्रेरणा लेने की जरूरत है. हमें बिलकुल याद रखना चाहिए कि बाबा साहेब अंबेडकर ने न सिर्फ हमें संविधान और आरक्षण दिया, बल्कि उन्होंने हमें राजनीति में भक्ति के खतरों से भी आगाह किया था. इसे उन्होंने  तानाशाही का नुस्खा बताते हुए कहा था कि अगर हिंदू राष्ट्र हकीकत बन गया तो हम पर बहुत बड़ी मुसीबत आएगी. आइए, हम फुले और अंबेडकर की जयंती मनाते हुए उनके विचारों को आत्मसात करें और संविधान और भारत के लोकतांत्रिक भविष्य की रक्षा के लिए पूरे समर्पण और ताकत से काम करें.
कार्यक्रम की अध्यक्षता नगर सचिव सह भाकपा माले राज्य कमिटी सदस्य विष्णुदेव प्रसाद यादव ने की।वहीं बाबा साहब की तस्वीर पर सबसे पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता भैरव दयाल सिंह ने माल्यार्पण किया तत्पश्चात ऐपवा जिला संयोजक शबनम खातून,जिला कमिटी सदस्य अच्युतानंद पटेल,राघव साह,रंजन कुमार,विनय यादव ने पुष्प अर्पित किया।
इसके अलावा भी नारायण चौक पकड़िया, दरपा,सुगौली आदि स्थानों पर कार्यक्रम आयोजित किए गए।
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