केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, भाषा संस्थान उत्तर प्रदेश और महाकवि जयशंकर प्रसाद ट्रस्ट के संयुक्त तत्वावधान में महाकवि जयशंकर प्रसाद और मुंशी प्रेमचंद -“हिंदी साहित्य के दो मित्रवत स्तंभ” विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

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अशोक वर्मा
वाराणसी /सारनाथ :  केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान सारनाथ, वाराणसी के सभागार में महाकवि जयशंकर प्रसाद और मुंशी प्रेमचंद “हिंदी साहित्य के दो मित्रवत स्तंभ” विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन रविवार को संपन्न हुआ।  उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के कुलपति ने दीप प्रज्वलित कर सत्र का शुभारंभ किया। संगोष्ठी की संयोजिका डॉ. कविता प्रसाद ने सभी आगंतुकों का स्वागत किया।
           प्रथम दिवस उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो रामेश्वर राय ने कहा कि साहित्यकार का काम समाज की स्थापनाओं को स्वीकार करना नहीं है बल्कि विचारों से टकराना है। दृष्टि और आकांक्षा दोनों मिलकर जीवन दर्शन का निर्माण करते हैं। उन्होंने कहा कि प्रसाद भाव के स्तर पर संपूर्ण भारतीय वांग्मय परंपरा के आधार पर साहित्य का सर्जन करते हैं, वही प्रेमचंद जीवन के सत्य को अपने साहित्य में उकेरते हैं अर्थात समाज के जिस नग्न यथार्थ उन्होंने आंखों से देखा था, उसको ही उन्होंने अपने साहित्य में उकेरा।
          विषय वस्तु को रेखांकित करते हुए प्रो राम सुधार सिंह ने कहा कि प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में गुलामी की दास्तां से मुक्ति का सवाल खड़ा होता है। उनका साहित्य मानवता की दृष्टि एवं समानता के सवालों को भी सामने रखता है। उनकी रचनाएं मानवता की विजय का स्रोत है।
         कुल सचिव डॉ सुनीता चंद्रा ने कहा कि प्रसाद की रचनाओं में जहां इतिहास और संस्कृति को आधार बनाकर वसुधैव कुटुंबकम की कामना है, वहीं प्रेमचंद की रचनाओं में समाज की सच्चाई को आधार बनाया गया है, जिसमें नारी, किसान, मजदूर और सर्वहारा समाज है। वह सामाजिक समरसता के हिमायती हैं।
           अध्यक्षता करते हुए संस्थान के कुलपति प्रो वांगचुक डी नेगी ने कहा कि प्रसाद की रचनाओं में बौद्ध दर्शन का प्रभाव दिखता है। इसीलिए उनकी रचनाओं में विश्व कल्याण,अहिंसा, करुणा, मानवता, दया और राष्ट्रीय चेतना है। उनका मानना था कि विश्व में शांति युद्ध से नहीं बल्कि बुद्ध से अहिंसा और प्रेम से ही स्थापित किया जा सकता है जबकि प्रेमचंद की रचनाओं में एक अलग तरह की बेचैनी व छटपटाहट है। दोनों रचनाकारों का उद्देश्य एक ही है लेकिन रास्ते अलग-अलग हैं।
          डॉ प्रवीण कुमार ने कहा कि प्रेमचंद तथा जयशंकर प्रसाद मनुष्य के दायित्व बोध के रचनाकार है। डॉ सुमन जैन ने कहा कि इन दोनों रचनाकारों के साहित्य का आजादी के आंदोलन और नवजागरण में अहम भूमिका रही। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के निदेशक राजेश गौतम ने कहा कि जयशंकर प्रसाद का संपूर्ण साहित्य भारतीय वांग्मय परंपरा का आर्ष साहित्य है। प्रो श्रद्धानंद ने कहा कि प्रसाद और प्रेमचंद का साहित्य भाषा, सामाजिक चेतना, संस्कृति,राष्ट्रीय एवं मानवीय चेतना की दृष्टि से समान है। डॉ दयानिधि मिश्र ने कहा कि प्रसाद का साहित्य सत्यम, शिवम्, सुंदरम का संदेश देने वाला है जबकि प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक यथार्थ का साहित्य।  संचालन डॉ अनुराग त्रिपाठी तथा स्वागत संबोधन डॉ सरिता प्रसाद ने किया।  धन्यवाद ज्ञापन अवधेश गुप्ता ने किया।
      दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश भर के शोधकर्ताओं ने सहभागिता की। इस अवसर पर डॉ प्रशांत मौर्य, प्रो उमेश चंद्र सिंह, सुनील कुमार, राजेश कुमार मिश्रा, उप कुलसचिव डॉ हिमांशु पांडेय, रवि रंजन द्विवेदी, पूर्वी चम्पारण बिहार से डॉ नन्दकिशोर साह, भगवान् दास शर्मा ‘प्रशांत’, महाराष्ट्र से डॉ विनोद मोनिका भमकार, स्नेहा वानखेडे सहित सैकड़ों छात्र-छात्राएं एवं कर्मचारी उपस्थित रहे। दूसरे दिन कामायनी, शतरंज एवं मुंशी प्रेमचंद और महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन दर्शन पर आधारित नाटक का सजीव मंचन किया गया।
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